गोरक्षा आंदोलन तमाम अंतर्विरोधों से घिरा एक विचित्र आंदोलन है। सनातन धर्म के मूल्यों को बचाने का दावा करने वाला यह आंदोलन आर्य समाज के प्रभाव में जोर पकड़ता है। धार्मिक दिखने वाला यह आंदोलन पूरी तरह से राजनीतिक ताकत पैदा करता है। राजनीतिक मकसद हासिल करने के साथ यह आर्थिक हितों (खेती) की रक्षा का दावा भी करता है। मुसलमानों के विरुद्ध केंद्रित दिखने वाला यह आंदोलन उससे ज्यादा अँग्रेजों के विरुद्ध रहा है। इस दौरान इसके प्रभाव में अगर हिंदू मुस्लिम दंगे घटित होते हैं तो हिंदू-मुस्लिम एकता भी कायम होती है। जब हिंदू-मुस्लिम एकता कायम होती है तो वह अपने ही धर्म की परिधि पर खड़े दलितों के खिलाफ हो जाता है। इसलिए आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती के प्रभाव में जोर पकड़ने वाला गोरक्षा आंदोलन सारी उथल-पुथल के बाद अगर एक संतुलित राह पाता है तो वह महात्मा गांधी के अहिंसक नजरिए में। वरना गोवध के विरुद्ध यानी हिंसा के विरुद्ध खड़ा आंदोलन अपने को हिंसा में ही झोंक देता है।
उन्नीसवीं सदी में 1880 से 1894 तक उत्तर भारत में जोर पकड़ने वाले गोरक्षा आंदोलन को सबसे ज्यादा ताकत मिली आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद से। उनका सत्यार्थ प्रकाश 1882 में प्रकाशित होता है और इसी साल वे गोरक्षिणी सभा का गठन करते हैं। हालाँकि वे गोरक्षा के मुद्दे पर अँग्रेजों की आलोचना 1866 से ही कर रहे थे। इस बीच उन्होंने 'गौ करुणानिधि' नाम से एक परचा भी लिखा जिसके पहले हिस्से में गाय की प्रशंसा और गोकशी के विरुद्ध तमाम दलीलें दी गई थीं। जबकि दूसरे हिस्से में गोकृष्याधिकारिणी सभाओं यानी गोरक्षिणी सभाओं के गठन के नियम और कानून दिए गए हैं। यहाँ यह जानना दिलचस्प है कि 1860 के आसपास ही ब्रिटिश और यूरोपीय विद्वानों ने वेदों का नए सिरे से अध्ययन शुरू किया था। इन अध्ययनों में यह साबित करने की कोशिश की जा रही थी कि वैदिक ऋषियों में गाय और बैलों का मांस खाने का चलन था। यानी गाय की संतति उस तरह से पूज्य नहीं थी जैसी उन्नीसवीं सदी में हो गई है। प्रोफेसर डी.एन. झा और उनके सदृश अन्य इतिहासकार बाजश्रवा और नचिकेता, वशिष्ठ और याज्ञवल्क्य के हवाले से यही साबित करते हैं कि वैदिक युग में गाय और उसकी संतति का प्रयोग मांसाहार के रूप में होता था। इससे मिलती-जुलती बात विष्णु-पुराण में भी वर्णित है जहाँ पर कहा गया है कि पितृ-पक्ष में विभिन्न प्रकार के जानवरों का मांस खाने से पितृ संतुष्ट होते हैं। हालाँकि उसी उद्धरण के नीचे पाद टिप्पणी के रूप में मनुस्मृति का जिक्र है जिसमें कहा गया है कि यह श्लोक का शाब्दिक अर्थ है और वास्तव में पितृ तो शाकाहारी भोजन से ही संतुष्ट होते हैं।
यहाँ पर स्वामी दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश में इस धारणा का खंडन किया है कि गोमेध, नरमेध और अश्वमेध का मतलब इन जीवों की हत्या करके यज्ञ करने से हैं। स्वामी जी कहते हैं, यज्ञ में मांस खाने में दिक्कत नहीं है ऐसी पामरपन की बातें वाममार्गियों ने चलाई है। उनसे पूछना चाहिए कि जो वैदिकी हिंसा, हिंसा न हो तो तुझ और मेरे कुटुंब को मार के होम कर डालें तो क्या चिंता है? ऐसे-ऐसे बचन भी ऋषियों के ग्रंथ में डाल के कितने ही ऋषियों-मुनियों के नाम से ग्रंथ बनाकर गोमेध, अश्वमेध नाम यज्ञ भी कराने लगे थे। अर्थात इन पशुओं को मार के होम करने से यज्ञमान और पशु को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। ...निश्चय तो यह है कि ब्राह्मण ग्रंथों में अश्वमेध, गोमेध, नरमेध आदि शब्द हैं उनका ठीक-ठाक अर्थ नहीं जाना है, क्योंकि जो जानते तो ऐसा अनर्थ क्यों करते?"
वे शतपथ ब्राह्मण में दिए गए शब्दों का अर्थ समझाते हुए कहते हैं कि घोड़े, गाय आदि पशु और मनुष्य को मार कर होम करना कहीं नहीं लिखा। केवल वाममार्गियों के ग्रंथों में ऐसा अनर्थ लिखा है। जो लिखा है उसका अर्थ इस प्रकार समझाते हैं वे - "राजा न्याय धर्म से प्रजा का पालन करे, विद्यादि का देनेहारा और यजमान द्वारा अग्नि में घी आदि का होम करना अश्वमेध, अन्न, इंद्रियाँ, किरण, पृथ्वी आदि को पवित्र रखना गोमेध, जब मनुष्य मर जाए तब उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना नरमेध कहलाता है।"
यहाँ यह जानना दिलचस्प है कि अँग्रेज इतिहासकार जब यह साबित करने में लगे थे कि वैदिक युग में ब्राह्मण गोमांस खाते थे, वहीं दयानंद सरस्वती उसे गलत साबित करने में लगे थे। दोनों वैदिक साहित्य की ही अपने ढंग से व्याख्या कर रहे थे। संयोग से वह समय भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857 के ठीक बाद का है। उस संग्राम में सैनिकों के बगावत की एक महत्वपूर्ण वजह कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी का लगा होना होता था।
यहाँ यह बात भी महत्वपूर्ण है कि स्वामी दयानंद सरस्वती चाहते थे कि गोरक्षिणी सभाओं का सदस्य किसी भी समुदाय या समूह का सदस्य बन सकता है। इसके अलावा उनका कहना था कि जो भी समुदाय इसका सदस्य बने उसका प्रतिनिधित्व कार्यकारिणी में होना चाहिए। स्वामी दयानंद ने गोकशी के विरुद्ध एक लाख हस्ताक्षर इकट्ठा करके उसे महारानी विक्टोरिया और भारत के ब्रिटिश गवर्नर जनरल को पेश करने का फैसला किया। इस दौरान 40,000 हस्ताक्षर मेवाड़ और 60,000 हस्ताक्षर पटियाला से इकट्ठा किए गए बताए जाते हैं।
एक तरफ इस आंदोलन से हिंदू मुस्लिम दंगे हो रहे थे, तो दूसरी तरफ इसमें मुस्लिम और पारसी, हिंदुओं का साथ देने के लिए भी खड़े हो रहे थे। गोरक्षा सभाएँ मुगल शासकों का हवाला देकर कह रही थीं कि उन्होंने गोकशी पर पाबंदी लगाई थी, इसलिए अँग्रेजों को लगानी चाहिए। जबकि मुस्लिम आबादी बकरीद के मौके पर शासन से गोकशी की परमिट माँगते थे। पंजाब के कूका (नामधारी सिख) आंदोलन ने अँग्रेजों की गोकशी के विरुद्ध हिंदू और सिखों को एकजुट किया। कूका या नामधारी सिखों ने 1860 के दशक में अँग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजा दिया। सनातनी हिंदुओं की तरह गोरक्षा उनका प्रमुख मुद्दा था। उनका मानना था कि जो शासक गोहत्या की इजाजत देता है उसे शासन करने का हक नहीं है। कूका ने 1869 में पंजाब के फिरोजपुर में सिख राज की घोषणा कर दी। इस पंथ की स्थापना रावलपिंडी के हजारों के बालक सिंह नाम के एक सेठ ने की थी। उनका इरादा ब्राह्मणों के समांतर अपनी सत्ता स्थापित करना था। बालक सिंह के निधन के बाद उनके शिष्य राम सिंह ने इस काम को आगे बढ़ाया। कूका राम सिंह लुधियाना के भैनी के एक बढ़ई थे। कूका का अर्थ होता है चीखने वाले। वे शुद्धतावादी खालसा राज की स्थापना चाहते थे और सिर्फ गोविंद सिंह को गुरु मानते थे। वे दरबार साहिब के अलावा किसी और मंदिर, मस्जिद या मकबरे में यकीन नहीं करते थे। वे दिलीप सिंह की वापसी की उम्मीद लगाए हुए थे। वे अँग्रेजों के विरुद्ध जो गीत गाते थे वह इस प्रकार है -
लंदन से म्लेच्छ चढ़ आए।
इनहान ने घर-घर बूचड़ खाने पाए।
गुरन दे इनहान घाट हारी।
सनम हुन सिर देने आए।
अर्थात लंदन से गंदे लोग आ गए हैं और उन्होंने हर जगह बूचड़खाने कायम किए। उन्होंने हमारे गुरुओं को मारा और अब हमें अपना बलिदान देना चाहिए।
लेकिन विडंबना यह थी कि 1872 में कूकाओं ने अमृतसर में कुछ मुस्लिम कसाइयों को मार डाला और बदले में अँग्रेजों ने 63 कूकाओं को तोप से उड़ा दिया।
इस बीच लाहौर के अखबार 'आफताब-ए-पंजाब' ने 6 सितंबर 1886 के अंक में लिखा कि ईद के मौके पर गोकशी के कारण हिंदुओं और मुसलमानों में विवाद होते हैं। अखबार ने मुसलमानों को सलाह दी कि वे गोकशी बंद करें, क्योंकि इस्लाम कहीं विशेष तौर पर गोकशी की सलाह नहीं देता। सियालकोट के अखबार 'वशीर-उल-मुल्क' ने 12 अक्तूबर 1886 को झगड़ों का जिक्र किया और मुसलमानों से गोकशी रोकने की अपील की। लाहौर के 'कोह-ए-नूर' ने लिखा कि हिंदुओं को गलतफहमी है कि गोकशी के लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं। बल्कि इसके लिए गोमांस खाने वाले यूरोपीय जिम्मेदार हैं और अगर वे न कहें तो ऐसा नहीं होगा।
इस बीच बांबे की गोरक्षा मंडली का समर्थन करने में जाने-माने पारसी व्यवसायी दिनशा पेटिट आगे आए और खोजा मुस्लिमों ने भी इस मंडली का समर्थन किया। उड़िया के एक मुस्लिम कवि सद्दा ने गोरक्षा के समर्थन में गीत लिखे। यह आंदोलन पंजाब से होते हुए उत्तर-पश्चिमी प्रांत, बिहार तक फैला। लेकिन 1893 के मऊ के दंगे में दोनों समुदायों के 250 लोग मारे गए। मौका ईद का था। दरअसल विवाद तब हुआ जब मजिस्ट्रेट ने कुरबानी के लिए इजाजत देने वाले आदेश की 'चालाकी' से व्याख्या की। पहले इस आदेश की व्याख्या हिंदुओं के लिहाज से होती थी लेकिन उस साल मुस्लिमों के लिहाज से की गई, ऐसा कहा गया। देश भर के अखबारों में आजमगढ़ के दंगों की खबर छपी और कुछ अखबारों ने लिखा कि यह अँग्रेज प्रशासन की 'बाँटो और राज करो' नीति का परिणाम है। उनका कहना था कि मजिस्ट्रेट यूरोपीय यानी गोमांस खाने वाला था इसलिए उसने मुसलमानों के गोकशी के लिए उकसाया।
इस घटना के बाद महारानी विक्टोरिया की तरफ से आठ दिसंबर 1893 को वायसराय लार्ड लैंसडाउन को लिखे पत्र में कहा गया - "हालाँकि महारानी ने गाय-हत्या (विरोधी) आंदोलन पर वायसराय के भाषण की काफी तारीफ की। लेकिन उन्होंने कहा कि इस मौके पर मुसलमानों को हिंदुओं से ज्यादा सुरक्षा की जरूरत है क्योंकि वे हमारे लिए ज्यादा वफादार हैं। हालाँकि मुसलमानों की गोकशी को आंदोलन का बहाना बनाया जाता है लेकिन यह आंदोलन हम लोगों के विरुद्ध है, क्योंकि हम अपनी सेना के लिए मुसलमानों से ज्यादा गोकशी करते हैं।''
वायसराय लार्ड लैंसडाउन ने इस आंदोलन के बारे में लिखा था कि उन्होंने इस आंदोलन के दमन के लिए ज्यादा हिंसक रुख इसलिए नहीं अपनाया क्योंकि बगावत के बाद यह पहला आंदोलन है जिसके पास भारत सरकार को सर्वाधिक परेशान करने की ताकत है। इस आंदोलन को जन समर्थन है और इसका स्वरूप आयरलैंड के आंदोलन से मिलता है। जहाँ होम रूल आंदोलन महज राजनीतिक और संवैधानिक सुधारों की बात करता है, वहीं यह आंदोलन ज्यादा परेशान करने वाली माँगें रखता है। इसकी माँगें कांग्रेस के आंदोलन में गूँज रही हैं और इसने शिक्षित हिंदुओं और अशिक्षित जनता को जोड़ दिया है।
उन्नीसवीं सदी का गोरक्षा आंदोलन धीरे-धीरे शांत हो गया और इसे अँग्रेजों ने अपनी 'किस्मत' कहा लेकिन उसका असर बीसवीं सदी के आरंभ और आजाद भारत में भी रहा और उस बारे में गांधी ने 1909 में जो संतुलित दृष्टि पेश की वह आज भी महत्वपूर्ण है। 'हिंद स्वराज' नाम की अपनी विशिष्ट पुस्तक में गांधी ने गोरक्षा के बारे में अपने विचार पेश करते हुए कहा - "मैं खुद गाय को पूजता हूँ यानी मान देता हूँ। गाय हिंदुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिंदुस्तान का, जो खेती प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी है। यह तो मुसलमान भाई भी कबूल करेंगे। लेकिन जैसे मैं गाय को पूजता हूँ वैसे मनुष्य को भी पूजता हूँ। जैसे गाय उपयोगी है वैसे मनुष्य भी, फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिंदू... उपयोगी है। तब क्या गाय को बचाने के लिए मैं मुसलमान से लड़ूँगा? क्या मैं उसे मारूँगा? ऐसा करने से मैं मुसलमान और गाय का भी दुश्मन बनूँगा। इसलिए मैं कहूँगा कि गाय की रक्षा करने का एक यही उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाई के आगे हाथ जोड़ने चाहिए और उसे देश की खातिर गाय को बचाने के लिए समझाना चाहिए। अगर वह न समझे तो मुझे गाय को मरने देना चाहिए, क्योंकि वह मेरे बस की बात नहीं। अगर मुझे गाय पर अत्यंत दया आती है तो अपनी जान दे देनी चाहिए, न कि मुसलमान की जान लेनी चाहिए। यही धार्मिक कानून है और यही मैं मानता हूँ।"
गांधी यहीं नहीं रुकते। वे हिंदू और मुस्लिम संबंधों के बारे में अहिंसक तरीका इस प्रकार सुझाते हैं। वे कहते हैं - "हाँ और नहीं के बीच हमेशा बैर रहता है। अगर मैं वाद- विवाद करूँगा तो मुसलमान भी वाद-विवाद करेगा। अगर मैं टेढ़ा बनूँगा तो वह भी टेढ़ा बनेगा। अगर मैं बालिस्त भर नमूँगा, तो वह हाथ भर नमेगा और अगर नहीं भी नमेगा तो मेरा नमना गलत नहीं कहा जाएगा। जब हमने जिद की तो गोकशी बढ़ी। मेरी राय है कि गोरक्षा प्रचारिणी सभा गोवध प्रचारिणी सभा मानी जानी चाहिए। ऐसी सभा का होना मेरे लिए बदनामी की बात है। जब गाय की रक्षा करना हम भूल गए तब ऐसी सभा की जरूरत हमें पड़ी होगी। मेरा भाई गाय को मारने दौड़े तो मैं उसके साथ कैसा बरताव करूँगा? उसे मारूँगा या उसके पैरों में पडूँगा? अगर आप कहें कि मुझे उसके पाँव पड़ना चाहिए, तो मुझे मुसलमान भाई के पाँव भी पड़ना चाहिए...।
अंत में हिंदू अहिंसक और मुसलमान हिंसक है, यह बात अगर सही हो तो अहिंसक का धर्म क्या है? अहिंसक को आदमी की हिंसा करनी चाहिए, ऐसा कहीं नहीं लिखा है। अहिंसक के लिए तो राह सीधी है। उसे एक को बचाने के लिए दूसरे की हिंसा करनी ही नहीं चाहिए। उसे तो मात्र चरण वंदना करनी चाहिए, सिर्फ समझाने का काम करना चाहिए। इसी में उसका पुरुषार्थ है।" गांधी की सहिष्णुता की यह भावना व्यावहारिक रूप में 1919 के करीब खिलाफत आंदोलन में दिखाई पड़ती है। गांधी लखनऊ के बारी बंधुओं और रामपुर के अली बंधुओं से मिलते हैं। उसके बाद हिंदू और मुस्लिम एकता की मिसाल कायम होती है। इसके तहत मस्जिदों से एलान किया जाता है कि मुसलमान हिंदू भावनाओं का खयाल रखते हुए गोहत्या नहीं करेंगे और हिंदू मंदिरों से एलान हुआ कि हिंदुओं के धार्मिक जुलूस मस्जिदों के सामने से शोर-शराबे के साथ नहीं निकलेंगे। यह गांधी के आंदोलन की संचालन शक्ति थी और असहयोग आंदोलन की रीढ़ थी।
इसलिए गोरक्षा आंदोलन जिसमें गाय की रक्षा के साथ इनसानियत और देश की रक्षा भी शामिल हो, उसे चलाना न तो आसान है और न ही नासमझ लोगों के बस की बात है। गांधी जी की यह समझ सभी में ला पाना कठिन है लेकिन इसे मानक मानकर समाज, उसके संगठन और उसकी बुनियादी इकाई यानी व्यक्ति इस दिशा में प्रयास तो कर ही सकते हैं। यही सच्चा लोकतांत्रिक धर्म है और यही हमारी सभ्यता के विविधता, सहिष्णुता और बहुलता जैसे वे बुनियादी मूल्य हैं जिसकी याद राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने दिलाई है।